Dharali Tragedy: उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के धराली गांव में 5 अगस्त को आई बादल फटने की त्रासदी ने एक बार फिर हिमालयी पारिस्थितिकी के विनाश की ओर ध्यान खींचा है। खीर गंगा नदी में आई बाढ़ ने महज 34 सेकेंड में पूरे गांव को तबाह कर दिया। अब तक 5 लोगों की मौत की पुष्टि हो चुकी है, जबकि 100 से 150 लोग लापता हैं। राहत-बचाव में जुटी एजेंसियों ने अब तक 1000 से अधिक लोगों को एयरलिफ्ट कर सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया है।
देवदार के जंगल रोक सकते थे तबाही
प्रख्यात इतिहासकार और हिमालय विशेषज्ञ प्रो. शेखर पाठक के अनुसार, अगर धराली और उसके ऊपर गंगोत्री क्षेत्र में देवदार के घने जंगल अब भी होते, तो यह आपदा इस स्तर तक नहीं पहुंचती। “देवदार के पेड़ मलबा और पानी को रोकने की अद्भुत क्षमता रखते हैं। पहले हर वर्ग किलोमीटर में 400-500 देवदार पेड़ होते थे, लेकिन अब औसतन 200 से भी कम, वो भी कमजोर और नए पेड़ बचे हैं,” उन्होंने कहा।
इतिहास की गलती, आज की त्रासदी
प्रो. पाठक ने बताया कि 1830 के दशक में ब्रिटिश सिपाही फैडरिक विल्सन ने जब हर्षिल पहुंचकर देवदार की अवैध कटाई शुरू की थी, तब से लेकर आज तक यह प्रक्रिया रुक नहीं पाई है। “देवदार को काटकर बिल्डिंग्स, सड़कें, प्रोजेक्ट्स बने, पर बदले में पहाड़ों की प्राकृतिक सुरक्षा खत्म हो गई,”। धराली में जिस दिशा से मलबा आया, वहां कभी देवदार का घना जंगल हुआ करता था। आज वो इलाका लगभग निर्जन और वनविहीन हो चुका है।
रेस्क्यू अभियान जारी
राज्य आपदा प्रबंधन बल (SDRF), सेना, ITBP और वायुसेना के संयुक्त प्रयास से लगातार राहत-बचाव कार्य चल रहा है। गांव के कई हिस्से पूरी तरह मलबे में दबे हैं, जिससे लापता लोगों तक पहुंचना चुनौती बना हुआ है।
सरकार की प्रतिक्रिया
राज्य सरकार ने जांच के आदेश दे दिए हैं और पर्यावरण विशेषज्ञों की टीम को भेजा गया है, जो भू-संरचना, वन विनाश और आपदा प्रबंधन के पहलुओं पर रिपोर्ट तैयार करेगी। धराली की त्रासदी सिर्फ एक प्राकृतिक घटना नहीं, बल्कि एक पारिस्थितिक चेतावनी है। अगर हिमालयी इलाकों में वन संरक्षण और सतत विकास की उपेक्षा जारी रही, तो ऐसी घटनाएं और अधिक विकराल रूप ले सकती हैं।
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