Prime Chaupal: जब भी विकास की चर्चा होती है, तो दावा किया जाता है कि गांव और शहर दोनों का समान रूप से विकास किया जा रहा है. लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि विकास की रफ्तार शहरों में तो दिखाई देती है, पर गांव हमेशा पीछे छूट जाते हैं. जहां एक ओर शहरों में सुविधाओं का विस्तार होता है, वहीं गांव एक धीमी चाल में जैसे थम से जाते हैं. वहां का माहौल अक्सर शांत और सुस्त नजर आता है।
विकास के नाम पर आम जनता को किया जा रहा गुमराह

अगर आप जानना चाहते हैं कि विकास के नाम पर आम जनता को कैसे गुमराह किया जाता है और भेदभाव किस स्तर पर हावी है, तो लखनऊ के विकास खंड मलिहाबाद के गांव अल्लूपुर का दौरा जरूर करें. वहां की हालत देखकर आप भी दंग रह जाएंगे. यहां पर न तो बिजली की समुचित व्यवस्था है, न ही पेयजल की सुविधा. सरकारी योजनाओं का लाभ भी यहां के जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच पा रहा है. प्रधानमंत्री आवास योजना जैसी महत्वपूर्ण योजना भी यहां के गरीबों के लिए सिर्फ कागज़ों तक सीमित है.इतना ही नहीं, वृद्धावस्था पेंशन, राशन कार्ड, और अन्य जन कल्याणकारी योजनाओं में भी भारी भेदभाव देखने को मिल रहा है.
बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहा गांव

नतीजा ये है कि अल्लूपुर गांव का गरीब तबका आज भी बुनियादी सुविधाओं और असली विकास के लिए तरस रहा है. तस्वीरें देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि यहां के ग्राम प्रधान ने किस कदर अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ा हैं. नालियों की साफ सफाई, पानी को स्वच्छ पानी और रहने के लिए सिर पर छत इन मूलभूत सुविधाओं को लोगों तक पहुंचाने के लिए सरकार एड़ी चोटी का जोर लगाए हुए है लेकिन सरकार की योजनाएं धरातल तक आते आते दम तोड़ देती हैं. ये तस्वीरें हैं लखनऊ के विकास खंड मलिहाबाद के गांव अल्लूपुर की.ग्रामीणों की माने तो यहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अरमानों पर ही पानी फेरा जा रहा है.
नालियों में जमा कूड़ा और गंदगी

आपको बता दे कि, यहां पर नालियों में जमा कूड़ा और गंदगी से साफ पता चलता है कि यहां महीनों बीत जाते होंगे लेकिन सफाई नहीं होती होगी.सरकार के द्वारा दी जा रही योजनाओं में ज्यादातर या तो ताला लगा है या फिर ध्वस्त पड़ी ग्रामीणों को मुंह चिढ़ाते दिखाई दे रही हैं. हर घर नल तो छोड़िए गांव में लगे नल तक दुरुस्त नहीं हैं.
अब आप आखिर क्या उम्मीद करेंगे.इसमें सिर्फ अकेले ग्राम प्रधान नहीं बल्कि सचिव से लेकर ऊपर तक के सभी अधिकारी जिम्मेदार हैं. ऐसा इसलिए कहा जा सकता क्योंकि अगर उन्हें अपनी जिम्मेदारी याद होंती तो गांव अपनी बदहाली को लेकर रो नहीं रहा होता. थोड़ी बहुत योजनाएं जरुर मिल रही हैं लेकिन अभी भी गांव के हालत खराब हैं.
कब तक सिस्टम करेगा धोखा?

फिलहाल इस गांव को देख कर तो यही लगता है कि यहां के ग्रामीणों के अरमानों को तोड़ा नहीं बल्कि कुचला गया है.आखिर कब तक जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग सिस्टम में बैठकर देश की योजनाओं को दीमक की तरह चट कर इसे खोखला करेंगे. आखिर कब तक, ये सवाल मौजूं हैं इस गावं की फिजाओं में…
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