Supreme Court Article 143 : सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को संविधान के अनुच्छेद 143 (Article 143) के तहत राष्ट्रपति द्वारा कोर्ट से राय मांगने को पूरी तरह वैध करार दिया। कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा मई 2025 में भेजा गया सवाल क्या राष्ट्रपति या राज्यपाल किसी विधेयक पर निर्णय लेने में अनिश्चितकालीन देरी कर सकते हैं, या इस पर कोई समय सीमा तय होनी चाहिए पूरी तरह संविधान सम्मत है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने इस साल मई में एक संवैधानिक सवाल को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष रखा था।
सवाल था कि क्या राष्ट्रपति या राज्यपाल को विधेयकों पर सहमति या असहमति जताने के लिए कोई निश्चित समय-सीमा निर्धारित की जा सकती है। कई राज्यों में विधेयकों को मंजूरी देने में राज्यपालों की ओर से की जा रही देरी के चलते यह सवाल उठाया गया था, जिस पर केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच तनाव की स्थिति भी बनी थी।
राष्ट्रपति एडवाइजरी क्षेत्राधिकार में राय मांग रही हैं
मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अनुपस्थिति में, न्यायमूर्ति बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली 5 जजों की संवैधानिक पीठ ने यह स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से ‘एडवाइजरी ज्यूरिडिक्शन’ (सलाहकारी अधिकारिता) में राय मांगी है, न कि ‘अपील अधिकारिता’ (अपीलेट ज्यूरिस्डिक्शन) में। इसका मतलब यह हुआ कि राष्ट्रपति किसी फैसले को चुनौती नहीं दे रहीं, बल्कि किसी संवैधानिक स्थिति पर मार्गदर्शन चाहती हैं।
पुराने फैसले खुद-ब-खुद खत्म नहीं होते – कोर्ट
सुनवाई के दौरान कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि सुप्रीम कोर्ट किसी मुद्दे पर राय देता है कि कोई पूर्व निर्णय गलत था, तो भी वह पुराना निर्णय स्वत: समाप्त नहीं हो जाता। राय केवल मार्गदर्शक होती है और उसका प्रभाव फैसलों की तुलना में अलग होता है। यह स्पष्टीकरण इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह बताता है कि संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत दी गई राय का न्यायिक आदेश जैसा प्रभाव नहीं होता।
सॉलिसिटर जनरल ने पेश किया पुराना मामला
सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने एक पुराने मामले का हवाला देते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट अपनी सलाहकारी अधिकारिता में भी पूर्व के किसी निर्णय को रद्द कर सकता है। इस पर मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने जवाब दिया, “राय को बदला जा सकता है, लेकिन फैसला नहीं।” इस टिप्पणी से यह साफ संकेत मिला कि सलाह और न्यायिक आदेशों के बीच स्पष्ट रेखा खींची जानी चाहिए।
पीठ ने यह भी कहा कि राष्ट्रपति द्वारा संवैधानिक प्रश्नों पर कोर्ट से राय लेना लोकतांत्रिक और संवैधानिक संवाद की प्रक्रिया का हिस्सा है। इससे संविधान के तहत शक्तियों का संतुलन और स्पष्टता सुनिश्चित होती है। कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में न्यायपालिका की भूमिका मार्गदर्शक की होती है, जिससे शासन के विभिन्न अंगों को अपने कर्तव्यों का बेहतर निर्वहन करने में मदद मिलती है।
न्यायपालिका के बीच संवाद का स्वागत योग्य कदम
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी न केवल राष्ट्रपति की भूमिका की संवैधानिक व्याख्या करती है, बल्कि न्यायपालिका की सीमाओं और शक्तियों को भी रेखांकित करती है। संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट के बीच यह संवाद, भारतीय लोकतंत्र में शक्ति पृथक्करण और जवाबदेही के सिद्धांत को और मजबूती देता है। अब अगली सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट यह तय करेगा कि विधेयकों पर निर्णय में राज्यपालों को कोई समयसीमा बांधी जा सकती है या नहीं।

